गौर रंग अति गालों के, ए रंग जानें इनके तन ।
अचरज अदभुत वाही देखें, जो है अर्स मोमिन ।।
गीता में कहा गया है कि दो पुरुष हैं- क्षर एवं अक्षर । सभी प्राणी एवं पंचभूत आदि क्षर हैं तथा इनसे परे कूटस्थ अक्षर ब्रह्म कहे जाते हैं । इनसे भी परे जो उत्तम पुरुष अक्षरातीत हैं, एकमात्र वे ही परब्रह्म की शोभा को धारण करते हैं । (गीता १५/१६,१७) कुछ लोग भ्रमवश प्रकृति को अक्षर कहते हैं । इस सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त कारण प्रकृति तो जड़ तथा नश्वर है, तो उसे अक्षर कैसे कह सकते हैं ? इसके अतिरिक्त, यदि प्रकृति अक्षर है, तो उसे पुरुष के रूप में वर्णित क्यों नहीं किया गया ? कुछ लोग अज्ञानता के कारण जीव तथा नारायण को ही अक्षर कहते हैं । नारायण और जीव एक ही स्वरूप हैं तथा दोनों महाप्रलय में अपने मूल स्वरूप में लीन हो जाते हैं । तारतम ज्ञान की दृष्टि में- 1. यह सम्पूर्ण साकार-निराकार जगत (प्रकृति, नारायण सहित) क्षर है । 2. इससे परे तेजमयी, अविनाशी ब्रह्म अक्षर हैं । 3. उनसे भी परे सच्चिदानन्द स्वरूप अक्षरातीत हैं । क्षर गअक्षर ब्रह्म के मन (अव्याकृत) के स्वप्न में मोह सागर (महत्तत्व) में नारायण (आदि पुरुष, विराट पुरुष) का स्वरूप प्रकट होता है, जिन्हें क्षर पुरुष या प्रणव (ॐ) कहते हैं । उन्हें ही आदिनारायण, हिरण्यगर्भ, महाविष्णु, प्रथम पुरुष, शब्द ब्रह्म आदि नामों से जाना जाता है । इन्हीं से वेद प्रकट होते हैं तथा सभी जीव इन्हीं की चेतना का प्रतिभास स्वरूप हैं। सम्पूर्ण जीव समुदाय , पञ्च भूतात्मक जगत, अष्टधा प्रकृति (पञ्चभूत, मन, बुद्धि, अहंकार), आदि नारायण, तथा महाशून्य (मोह सागर) सभी क... Read more
पूर्ण ब्रह्म सच्चिदानन्द तो एक ही हैं, किन्तु लोगों ने अलग-अलग अनेक परमात्मा की कल्पना कर ली है । देवी-देवताओं की मूर्तियों की पूजा तो दूर की बात है, आजकल तो पीरों-फकीरों की कब्रों, पेड़, पौधों तथा नदियों के पूजन की परम्परा चल पड़ी है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने ऋषिकेश में तप किया था। शिव जी सदैव ध्यान-समाधि में लीन रहते हैं । महाभारत में योगेश्वर श्री कृष्ण के द्वारा संध्या किये जाने का वर्णन है । भला ये सब किसका ध्यान-वन्दना करते रहे हैं ? वेद का कथन है कि उस अनादि अक्षरातीत परब्रह्म के समान न तो कोर्इ है, न हुआ है, और न कभी होगा। इसलिये उस परब्रह्म के सिवाय अन्य किसी की भी भक्ति नहीं करनी चाहिए। (ऋग्वेद ७/३२/२३) वेद में कहा गया है कि एक ही अद्वितीय ब्रह्म को मेधावीजन इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, सुपर्ण, गरूत्मान्, दिव्य, यम, मातरिश्वा आदि अनेक नामों से कहते हैं (अथर्ववेद ९/१०/२८) । उस एक सत्यस्वरूप ब्रह्म के विभिन्न गुणों के आधार पर विभिन्न नाम माने गये हैं । वेद में किसी भी देवी-देवता की स्तुति नहीं है । उस ब्रह्म को अखिल ऐश्वर्ययुक्त होने के कारण इन्द्र , सबके लिए प्रीति का प्रात्र होने के कारण मित्र , सबसे श्रेष्ठ होने से वरुण , ज्ञान स्वरूप होने से अग्नि , उत्तम पालन युक्त गुणों से पूर्ण होने से सुपर्ण , महान स्वरूप वाला होने से गरूत्मान् , तथा प्रकाशमय होने से दिव्य कहा जाता है । उस ब्रह्म को ही सबका नियामक होने के कारण यम तथा अनन्त बलयुक्त होने के कारण मातरिश्वा नाम स... Read more
एक सात जने ईमानसों, मुए मुसलमान । आए पोहोंच्या सोई बखत, जो कह्या था नुकसान ।। म.सा. की इस चौ. में हुए किस्से को बतायें सुन्दरसाथ जीAnswer Now
श्री देवचन्द्र जी ने अपने प्रीतम को सेवा से प्रसन्न किया। हमेशा उनको अपने तन मन में बसा कर रखा तब प्रीतम ने तीन बार दर्शन दिये (एक बार बारात के पीछे जाते हुए सिपाही के भेष में, दूसरी बार चितवन में अखण...
Read Quiz →जो सत्य ( अखंड) है ,चेतन ( निरंतर लीला करने वाला ) और आनंद देने की क्रिया करता है। सत्य +चित्त +आनंद =सच्चिदानंद अर्थात पूर्ण ब्रह्म परमात्मा श्री राज जी महाराज ही हैं । इस जागनी लीला में कुरान में भी...
Read Quiz →मुख चौक नेत्र नासिका, निहायत सोभा अतंत । मुरली नासिका तेज में, सोभे नंग मोती लटकत ।।
एक खसखस के दाने जेता, नंग रोसन अंबर भराए । क्यों कहूं नंग मुरलीय के, ए जुबां इत क्यों पोहोंचाए ।।
ऊपर किनार साड़ी सोभित, लाल नीली पीली जर । छब फब बनी कोई भांत की, सेंथे लवने झाल ऊपर ।।.
तीन रंग जरी फुन्दन, गोफनडे़ नंग जड़तर । बारीक नंग नीले नकस, ए बरनन होए क्यों कर ।।